


भारतवर्ष की संस्कृति विश्व में अपने गहन भाव-संपन्न पर्वों, आत्मीय परंपराओं और संबंधों की गरिमा के लिए जानी जाती है। इन्हीं में से एक अद्वितीय पर्व है — रक्षाबंधन। यह केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि एक भावनात्मक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक उत्सव है, जो भारतीय मानस की गहराइयों से उपजा है।
रक्षाबंधन का मूल भाव “रक्षा” है, लेकिन यह रक्षा केवल बाह्य नहीं होती। यह मनुष्य की अंतरात्मा, उसके कर्तव्यों, उसके धर्म और उसके संबंधों की रक्षा का दायित्व भी समेटे होती है। जब एक बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधती है, तो वह वस्तुतः एक प्रार्थना करती है – कि उसका भाई जीवन के सभी संघर्षों में सत्य, धर्म और न्याय की राह पर अडिग रहे। वहीं, भाई भी उस रक्षा-सूत्र को केवल एक धागा नहीं, बल्कि एक संकल्प के रूप में स्वीकार करता है — कि वह बहन के मान-सम्मान, भावनाओं और जरूरतों की हर परिस्थिति में रक्षा करेगा। यह आदान-प्रदान केवल सांस्कृतिक प्रतीक नहीं, अपितु गहराई से आध्यात्मिक संवाद भी है।
भारत के प्राचीन ग्रंथों और इतिहास में रक्षाबंधन के संकेत यज्ञोपवीत संस्कार, रक्षा-सूत्र और श्रावणी परंपरा में भी मिलते हैं। वैदिक ऋषि अपने शिष्यों को यज्ञ के अवसर पर रक्षा-सूत्र बांधते थे, ताकि वे संयम, सच्चरित्रता और त्याग के मार्ग पर रहें। वहीं इतिहास में रानी कर्णावती और हुमायूं की कथा यह दर्शाती है कि राखी केवल पारिवारिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक सौहार्द का माध्यम भी बन सकती है। जब एक मुस्लिम शासक ने एक हिन्दू रानी की राखी स्वीकार कर उसकी रक्षा की, तो यह परंपरा सीमाओं से परे जाकर मानवता की रक्षा का प्रतीक बन गई।
भारतीय समाज में पर्वों का महत्व केवल रीतियों तक सीमित नहीं रहा है। वे जीवनशैली के वाहक रहे हैं। रक्षाबंधन भी ऐसा ही पर्व है, जो समाज में भाईचारे, स्नेह, और सह-अस्तित्व की भावना को पुनः जीवंत करता है। जब बहनें भाइयों को राखी बांधती हैं, तब परिवार में केवल रस्म अदायगी नहीं होती, बल्कि एक ऐसा भाव जगता है जो रिश्तों को फिर से जीवंत करता है। यह पर्व उस समय और भी प्रासंगिक हो जाता है जब आधुनिक जीवनशैली रिश्तों को डिजिटल कर रही है और आत्मीय संवाद लुप्त हो रहा है।
आज के समय में रक्षाबंधन केवल एक निजी उत्सव नहीं रह गया है। यह पर्व सामाजिक चेतना और दायित्वबोध का भी प्रतीक बन सकता है। नारी-सुरक्षा, लैंगिक समानता और सामाजिक संरचना में सशक्त स्त्री की भूमिका को यह पर्व नये दृष्टिकोण से सामने ला सकता है। आज जब हम महिलाओं के अधिकार, उनकी सुरक्षा और आत्मसम्मान पर पुनर्विचार कर रहे हैं, तब रक्षाबंधन केवल 'भाई की रक्षा' तक सीमित नहीं रह सकता। बहनों की भी रक्षा हो — उनके अधिकारों, उनके सपनों और उनकी गरिमा की रक्षा — यह सन्देश भी इस पर्व में समाहित होना चाहिए।
इस आधुनिक युग में जब संयुक्त परिवारों का स्वरूप बदल रहा है, जब पारिवारिक मिलन अवसरों पर आधारित हो गया है, रक्षाबंधन एक ऐसा अवसर बन सकता है जो टूटते रिश्तों को पुनः जोड़ने का माध्यम बने। यह पर्व हमें यह स्मरण कराता है कि संबंधों को जीवित रखने के लिए केवल शब्द नहीं, बल्कि समय, संवेदना और संकल्प की आवश्यकता होती है।
आज की बदलती दुनिया में यदि यह पर्व बहन–भाई के पारंपरिक दायरे से बाहर आकर प्रकृति, पर्यावरण, जल, सैनिकों और सामाजिक रक्षकों तक विस्तृत हो, तो यह वास्तव में एक सांस्कृतिक क्रांति का रूप ले सकता है। जब छात्र शिक्षक को राखी बांधे, जब नागरिक सैनिकों को, जब महिलाएं वृक्षों और नदियों को भी राखी बांधकर संरक्षण का संदेश दें — तब रक्षाबंधन केवल एक पारिवारिक उत्सव नहीं, बल्कि रक्षा–संस्कार का उत्सव बन जाएगा।
भारतीय संस्कृति की यही तो विशेषता है — वह स्थिर नहीं रहती, वह सतत बहती है, नये संदर्भ गढ़ती है और समय के अनुसार स्वयं को नया अर्थ देती है। रक्षाबंधन भी आज उसी मोड़ पर खड़ा है। जहाँ वह अपने पारंपरिक सौंदर्य को बनाए रखते हुए सामाजिक परिवर्तन का वाहक बन सकता है।
अतः यह आवश्यक है कि हम रक्षाबंधन को केवल एक रस्म के रूप में नहीं, बल्कि एक अवसर के रूप में देखें — जिसमें हम अपने परिवार, समाज, संस्कृति और प्रकृति के प्रति उत्तरदायित्व का संकल्प लें। यही इस पर्व की आत्मा है। यही भारतीय संस्कृति की जड़ें हैं, जिनसे निकल कर यह परंपरा सदियों से फलती–फूलती रही है।